Saturday, December 18, 2021

किताब खुलते ही

किताब खुलते ही ......
थोड़ा पढ़ते ही ...
आता है प्यार 
छा जाता है प्यार
बन जाती है दुनिया 
इन पन्नों 
में खो जाता हूं मैं
 तेरे रंगों में 
किताब खुलते ही  ...….थोड़ा पढ़ते ही

कह नहीं सकता 
पढ़ रहा हूं लाइने 
या तेरी हंसी 
गलबहियां संग तेरे 
जीवन चलता है 
अब पता नहीं है 
कब आता है दिन 
कब ढलता है

किताब खुलते ही .....थोड़ा पढ़ते ही 

लगता है ऐसा
 तू मुझ में है
 मैं तुझ में हूं
 पर न किसी को दिखता है 
है मगर कोई गुले इश्क
जो तेरे भी दिल में 
मेरे भी दिल में 
धीरे-धीरे फलता है



Thursday, April 7, 2016

माँ गंगा के चरणों में

निर्मल,अविरल,श्वेत तरंगो
को फिर से तुम अपनाओ माँ
नवीन प्रवाह,पुरातन रूप को
अब फिर से दोहराओ माँ ।

वही घाट हो ,वही किनारे
वही शुचिता के जयकारे हो ।
अंतर्मन भी निखर उठे
असंख्य शीश डुबारे हो ।

हर हर गंगे, हर हर माते 
गुंजायमान तीर दिखलाओ माँ ।
चमक उठे ये पावन धरा
श्रंगार वही सजाओ माँ ।

जीवनदायनी, मोक्षदायनी
प्रेरणा,नवीन स्वरूपा हो तुम ।
माना कुछ तो भूल हुई हैं
पर फिर भी मातृरूपा हो तुम ।

पर्याय तुम्हारे हैं अनन्य
स्वच्छता का भी बन जाओ माँ ।
क्षमा मांगते कोटिशः शीश
पुनः वही बन जाओ माँ ।

लेखा-जोखा जीवन का

वित्तीय वर्ष का
अंतिम महीना
लेखा-जोखा,
कर लिए टारगेट्स पुरे
मगर रह गया
बहुत कुछ
खुशियों के चेक
कैश नहीं हो पाये
आनन्द तो खातों में ही रह गया
शांति,
जो में मांग रहा था
ईश्वर से
बस टरकाते
और कर्म करने का आश्वासन देते रहें,
जिनको होना था लाभान्वित
मेरे दुलार प्यार से
उनको सिर्फ
वायदा मिला
पिकनिक पेंडिंग रही
पेरेंट्स मीटिंग का
जुर्माना
बच्चों ने उदास आँखों से भरा
माँ-बाप की तो किश्ते भी
नहीं लगी
पत्नी को डेट पर डेट मिली
पर फ़ाइल आगे नहीं बढ़ी
बस निराश आँखों से
बिगड़ी हुई
जीवन की बेलेंस शीट को
सबसे छिपा रहा हूँ
फ़ाइल सी बन गयी जिंदगी को
बस टेबल दर टेबल
सरका रहा हूँ
जिंदगी का बिल
परिवार से
लड़ झगड़ कर
अनुनय विनय से
पास करवा रहा हूँ
और शिकायतों के रिमार्क
लगवाता जा रहा हूँ ।

Sunday, February 28, 2016

ये दुकानें

ये दुकानें
बेल की तरह
सड़क से लिपट गयी हैं
छा गयी हैं हर और
किस्म-किस्म के लगा के रसभरे फल-फूल
चमका कर पत्तों को
दे रही खुला आमन्त्रण
मधुपान का
लो आनंद भौतिक संसार का
बाजार का
औकात का

चाहे कोई हो प्रजाति
कोई हो रंग-ओ-वंश
यहाँ कोई भेद नहीं
जो हम और तुम अकसर
किया करते हैं
बस शर्त यही हैं
कीमत अदा करो ।

Wednesday, February 10, 2016

जो बताने का ना हो

जब भी करने को होता हूँ
कुछ ऐसा
जो बताने का ना हों ,
नेपथ्य से छूटता हैं
कोई सरसराता तीर
दिल में छेद सा करता
फड़फड़ाहट बढ़ती ही जाती हैं ।
शिरायें ओवरलोड सी
लगता हैं अभी उबल पड़ेगा रक्त
परंतु मष्तिष्क जम सा गया हैं ।
कदम क्यों हैं इतने भारी
क्यों पीछे मुड़ मुड़ देखता हूँ ।
कोई हैं ही नहीं
कही से आवाज आती हैं ,
हर जगह हैं कैमरे फिट
मैं वापस हो लेता हूँ
या तो हारा हु या
जीता हूँ आज

Sunday, November 1, 2015

दीवार

जाओ भाई
जरा अपने से निकलकर
आओ
दो कप चाय हो जाये
और करे बात ।
इस निर्माणाधीन
दीवार को
बनाना हैं ?
की गिराना हैं ?
ग़र बनाना हैं
क्या कोई झरोखा रखना हैं ?
या कुछ सुराख़ रखने हैं
सिँगल ईंट की या
नो इंच की मज़बूती वाली ?
जो भी हो
जिन्होंने तुझसे कहा था
उसी ने मुझसे कहा था
शक्ल भले ना मिलती हो
हा! पर बात वही थी ।
जो तुझे लगता हैं
मुझे भी लगता हैं
पर मक़सद किसी और का लगता हैं
कोई तुझे डरा रहा हैं
मुझे उकसा रहा हैं
बस लड़ाना चाह रहा हैं ।
तो भाई !
गिरा दे या बनने दें ?
मेरी चाह हैं
बनने ना पाये ,
न यहाँ ना दिलों में !

Sunday, October 18, 2015

ख्वाहिश मेरी

तेरे आस पास ही 
हवाओं में घुलकर
तेरी मचलती लटों को
उड़ा जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तेरी नर्म हथेलियों में
मेहंदी बन कर रच जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तुम ही तो हो
उजाले की किरण
तुम ही हो दर्पण
मेरे मन का
तेरे कंगनों में
खनक जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तेरी पाजेब की
छन-छन
मेरा मुदित मन
तेरी कनखियों से कह जाना
मेरा रुक जाना
तेरे बालों में फूल सा महक जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तुम हो  बिम्ब
सपनो का
अपनों का
तुम में ही खो जाना
तुम ही हो जाना
हैं ख्वाहिश मेरी