Sunday, February 28, 2016

ये दुकानें

ये दुकानें
बेल की तरह
सड़क से लिपट गयी हैं
छा गयी हैं हर और
किस्म-किस्म के लगा के रसभरे फल-फूल
चमका कर पत्तों को
दे रही खुला आमन्त्रण
मधुपान का
लो आनंद भौतिक संसार का
बाजार का
औकात का

चाहे कोई हो प्रजाति
कोई हो रंग-ओ-वंश
यहाँ कोई भेद नहीं
जो हम और तुम अकसर
किया करते हैं
बस शर्त यही हैं
कीमत अदा करो ।

Wednesday, February 10, 2016

जो बताने का ना हो

जब भी करने को होता हूँ
कुछ ऐसा
जो बताने का ना हों ,
नेपथ्य से छूटता हैं
कोई सरसराता तीर
दिल में छेद सा करता
फड़फड़ाहट बढ़ती ही जाती हैं ।
शिरायें ओवरलोड सी
लगता हैं अभी उबल पड़ेगा रक्त
परंतु मष्तिष्क जम सा गया हैं ।
कदम क्यों हैं इतने भारी
क्यों पीछे मुड़ मुड़ देखता हूँ ।
कोई हैं ही नहीं
कही से आवाज आती हैं ,
हर जगह हैं कैमरे फिट
मैं वापस हो लेता हूँ
या तो हारा हु या
जीता हूँ आज