जाओ भाई
जरा अपने से निकलकर
आओ
दो कप चाय हो जाये
और करे बात ।
इस निर्माणाधीन
दीवार को
बनाना हैं ?
की गिराना हैं ?
ग़र बनाना हैं
क्या कोई झरोखा रखना हैं ?
या कुछ सुराख़ रखने हैं
सिँगल ईंट की या
नो इंच की मज़बूती वाली ?
जो भी हो
जिन्होंने तुझसे कहा था
उसी ने मुझसे कहा था
शक्ल भले ना मिलती हो
हा! पर बात वही थी ।
जो तुझे लगता हैं
मुझे भी लगता हैं
पर मक़सद किसी और का लगता हैं
कोई तुझे डरा रहा हैं
मुझे उकसा रहा हैं
बस लड़ाना चाह रहा हैं ।
तो भाई !
गिरा दे या बनने दें ?
मेरी चाह हैं
बनने ना पाये ,
न यहाँ ना दिलों में !
poems written on varios topics , contemporary articles , विभिन्न विषयो पर कवितायेँ , समकालीन निबंध
Sunday, November 1, 2015
Sunday, October 18, 2015
ख्वाहिश मेरी
तेरे आस पास ही
हवाओं में घुलकर
तेरी मचलती लटों को
उड़ा जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तेरी नर्म हथेलियों में
मेहंदी बन कर रच जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तुम ही तो हो
उजाले की किरण
तुम ही हो दर्पण
मेरे मन का
तेरे कंगनों में
खनक जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तेरी पाजेब की
छन-छन
मेरा मुदित मन
तेरी कनखियों से कह जाना
मेरा रुक जाना
तेरे बालों में फूल सा महक जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तुम हो बिम्ब
सपनो का
अपनों का
तुम में ही खो जाना
तुम ही हो जाना
हैं ख्वाहिश मेरी
हवाओं में घुलकर
तेरी मचलती लटों को
उड़ा जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तेरी नर्म हथेलियों में
मेहंदी बन कर रच जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तुम ही तो हो
उजाले की किरण
तुम ही हो दर्पण
मेरे मन का
तेरे कंगनों में
खनक जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तेरी पाजेब की
छन-छन
मेरा मुदित मन
तेरी कनखियों से कह जाना
मेरा रुक जाना
तेरे बालों में फूल सा महक जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तुम हो बिम्ब
सपनो का
अपनों का
तुम में ही खो जाना
तुम ही हो जाना
हैं ख्वाहिश मेरी
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