Friday, March 18, 2011

दर्द छावँ का छलके कैसे ?

दर्द छावँ का छलके कैसे ?
मैं संगिनी उसकी
अंतिम पथ तक,
गतिमान मेरा प्रत्येक अंश
आश्रित उसके तन पर |
पीड़ा उसकी मुझ पर
उभरे कैसे ?
दर्द छावँ का छलके कैसे ?

वो झेले स्वयं पर
असहनीय बोझा,
मैं बेबस बस
कल्पना करती |
वो आहत होता
शब्द बाणों से,
मैं साथी निर्जीव रहती |
उसका विद्रोह मुझ पर,
उभरे  कैसे ?
दर्द छावँ का छलके कैसे ?

वो दंश झेलकर
अँधेरे में जाता,
में देहरी पर ही दुबकी रहती |
ज्योंही वो प्रकाश खोजता
चुपके से फिर संग हो लेती |
विच्छेद रेखा सिमटे केसे
दर्द छावँ का छलके कैसे ?

वो लेता हैं झेल,
 सारा सुर्यातप
में जाने क्यों,
शीतलता में होती |
आतप प्रभाव,
जितना मंद होता
उतनी ही मुझमे 
व्रद्धी होती |
यह प्रतिकर्षण,
आकर्षण में बदले कैसे ?
दर्द छावँ का छलके कैसे ?

वो थका मांदा
बिस्तर पर आता,
में निर्दयी पीछे छिप जाती |
जहाँ चाहिए साथी उसको,
में  कृत्घन
अद्रश्य हो लेती |
उसके दुःख सुख का सम्प्रेष्ण
मुझ तक हो कैसे ?
दर्द छावँ का छलके कैसे ?

जापान त्रादसी

जापान त्रादसी
ईश्वर ने कहा था !
मैं नही हु दुनिया में,
मानने लगोगें
जानने लगोगें,
तब तुम,
फिर से मुझे,
पहचानने लगोगें |

होना ही हैं
भरना ही हैं
ख़ाली जो किया था,
मेरें में से,
तुम भी तो करते हो
दावा मानहानि का
अदालतों में ,
क्या मेरा अधिकार नही हैं,
क्षतिपूर्ति का !    

दोषी मुझे न ठहराना ,
मेरा भी वजूद हैं  |
मुझे डर लगता हैं,
तुम्हारे बढ़ते हुए
क़दमो से,
तुम्हारी नजरें,
मेरें पद पर हैं !
मैं बस,
अपना बचाव करता हु |    

Thursday, March 10, 2011

मन-मृग

मन-मृग जग जंगल में,
दौड़ रहा हैं प्रतिपल |
स्वं मैं हैं सुख-कस्तूरी,
खोज कहा रहा हैं स्थल |
प्रतिष्ठा के ताड़ के नीचे,
आभास मिला सुगंधी का |
पर क्षण मोह,छावं नही,
स्पर्श मिला यहाँ अग्नि का |
धन ले टीलों पर चढ़ गया,
लगा यही कही हैं,वो वस्तु |
फिर छल,तृषित चातक बना,
और मिला न कोई बंधु |
अब गया भोग-नदी किनारे,
सोचा यही हैं अंतिम लक्ष्य |
दिखी रिक्तता सर्वत्र यहा,
जीवन का व्यर्थ हुआ क्षय |
थका मन-मृग अब हांफ रहा,
कितना दूर हैं,वो स्थल |
मन-मृग जग जंगल मैं,
दौड़ रहा हैं प्रतिपल |

Tuesday, March 8, 2011

तुम आओं प्रिय

तुम आओं प्रिय,
फिर से |
क्यों गये तुम ?
में याद ना भी करू
मगर याद दिलाते हैं,
रेडियो पर
 बजते हुएं गाने,
सिनेमाहाल में
फिल्मो के अफ़साने 
तुम्हे बुलाते हैं प्रिय
मेरी बाईक की
पिछली सीट पर
बैठकर कोई,
कंधे पर हाथ रखता हैं,
लगता हैं शीशे में
हँसता हुआ
तेरा चेहरा दिखता हैं |
अलसुबह  आने वाला
तुम्हारा 'गुड मोर्निंग'
जगाता था मुझे,
जैसे होले से
माँ जगाती हैं
बच्चे को
अब तो फोन भी
बेगाना हो गया
रोज रुलाता हैं |
 तुम आओं प्रिय,
फिर से,
हर साजो सामान
तुम्हारे बिना,
लगते ही नही
मेरे हैं, 
हम सब का
प्राण तुम्ही हो प्रिय |


Saturday, March 5, 2011

रचना

पिरोंता हु मोती
चुन-चुनकर
धागा कमजोर
लगने लगता हैं !
कभी मोती
घिसा पिटा सा
छिला हुआ सा
लगता हैं !
सुई पिरो नही पाती
मोंतियो को
हथेली में चुभ
जाती हैं !
बिखर जाता हैं ,
सब कुछ
पन्ना फाड़ दिया जाता हैं !