Sunday, November 1, 2015

दीवार

जाओ भाई
जरा अपने से निकलकर
आओ
दो कप चाय हो जाये
और करे बात ।
इस निर्माणाधीन
दीवार को
बनाना हैं ?
की गिराना हैं ?
ग़र बनाना हैं
क्या कोई झरोखा रखना हैं ?
या कुछ सुराख़ रखने हैं
सिँगल ईंट की या
नो इंच की मज़बूती वाली ?
जो भी हो
जिन्होंने तुझसे कहा था
उसी ने मुझसे कहा था
शक्ल भले ना मिलती हो
हा! पर बात वही थी ।
जो तुझे लगता हैं
मुझे भी लगता हैं
पर मक़सद किसी और का लगता हैं
कोई तुझे डरा रहा हैं
मुझे उकसा रहा हैं
बस लड़ाना चाह रहा हैं ।
तो भाई !
गिरा दे या बनने दें ?
मेरी चाह हैं
बनने ना पाये ,
न यहाँ ना दिलों में !

Sunday, October 18, 2015

ख्वाहिश मेरी

तेरे आस पास ही 
हवाओं में घुलकर
तेरी मचलती लटों को
उड़ा जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तेरी नर्म हथेलियों में
मेहंदी बन कर रच जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तुम ही तो हो
उजाले की किरण
तुम ही हो दर्पण
मेरे मन का
तेरे कंगनों में
खनक जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तेरी पाजेब की
छन-छन
मेरा मुदित मन
तेरी कनखियों से कह जाना
मेरा रुक जाना
तेरे बालों में फूल सा महक जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तुम हो  बिम्ब
सपनो का
अपनों का
तुम में ही खो जाना
तुम ही हो जाना
हैं ख्वाहिश मेरी