Monday, August 22, 2011

उद्धि

हृदय रूपी उद्धि
खो रहा है स्वरूप
इर्ष्या का सूर्य
सोंख रहा हैं
स्नेह-प्रेम के नीर को
हे बदलो
सूखने न दो 
दया की सीपियाँ
चुरा ले गये
दुर्भावना रूपी
मछुवारे के बच्चे |
पल रहे हैं घड़ियाल
दिखावे के
बाज नोंच रहे हैं
 मेरी निश्छलता को
हे ज्ञान की नदियों ::
रक्षा करो मेरी |

बदलो अपनी दृष्टी

बदलो अपनी दृष्टी
स्वय बदलकर देखो
आकर्षक मनोहर,
मुस्कान लकीरे नही
श्रम व वेदना की ,
झुरीयाँ देखो |
फुल और कली में क्या ?
पत्ते और टहनी में क्या ?
देखना है तो बीज का त्याग देखो
उद्धि की हिलोरे ,
पक्षी की किलोले,
नदियों के प्रपात,
चिड़ियाँ की चहके
वसंत ऋतु और
कोयल की कूके.
अब नही है युग यह वर्णन का .
मौका है जीवन दर्शन का.
अब झोपड़ पट्टी बस्तियां
होंगी तुम्हारी मस्तियाँ |
प्रकृति के दर्शन होंगे तुमको
भूखे पिचके पेटों में |
सूक्ष्म त्रुटी पे भरी यातना,
ढाबो पर सहते बच्चो में
भो न अब कल्पना धारा में
 वास्तविकता चट्टानें देखो ;
बदलो अपनी दृष्टी,
स्वय बदलकर  देखो |

सूरज के साथ

रात में तारे
आँखों में चुभते हैं
चांदनी में
एक जलन सी होती है
रोज थम जाता हु
सूरज के साथ
ख़ाली हाथ
जब घर की दीवारे
जैसे कैदी बनाती हैं
बाहर जाता हु
रेगिस्तान पाता हु
पिता की आँखे
देखता हु जब
पहाड़ सी आशाएं
लादे फिरता हु
शक्ति नही मिलती
ढ़ोने की  /.

जेठ की दोपहरी

जेठ की दोपहरी में,
नंगे बदन
सूर्यातप को
झेल रहा |
बैठ दोपहरी की छाती पर,
चुने पत्थर से खेल रहा
गिरा हथोडा पत्थर पर
स्वेद बूंद टपक पड़ी
कोने में दुबकी छाया की
बरबस आँखे छलक पड़ी ;
साँझावार धुप  और लू का
उसने अंगोछे में समेट लिया 
उठा परत पत्थर की सर पर
दुपहरी के तन को भेद दिया ;
हो बेबस अब दोपहरी
चुपके से पीछे खिसक गयी |
वो बैठ छांव में सोच रहा
आज की रोटी तो मिल गयी |

रेत के कण

रेत के कण,
भटकते इधर-उधर
पवन के संग
जा मिलते कभी,
दुसरे टीले में,
कर पहले को भंग
यायावरी सी प्रकृति ,
विश्वास रहित मित्रो से,
दिखाते अपना रंग
उष्ण में देखो,
उष्ण मिलेंगे
शीत में छुओ,
शीत मिलेंगे
अनुकूलन हैं,;
जीवन यापन ढंग
गिर जाते हैं
उड़ जाते हैं
कभी शांख-पात में,
फंस जाते हैं
बह जाते हैं कभी,
नीर प्रवाह के संग
चलती रहती हैं इनकी
पञ्च-भुत से
आँख-मिचोली संग ;
भटकते बेघर,;
रेत के कण | 

अणु

सृष्टि के अणु-अणु में सृष्टि
अणु-अणु मिल फिर निर्मित सृष्टि
अति सूक्ष्म रहस्य सृष्टि का
देख न पाए जिसको दृष्टि
ब्रह्मांड स्वयं हैं एक अणु
पृथ्वी भी स्वयं हैं एक अणु
निट्टी का अणु भी एक ब्रह्मांड
उस ब्रह्मांड में जाने कितने अणु
अंत-अनन्त हैं अनन्त-अंत हैं
बस अणु से अणु का बंध हैं |

शहर

शहर को रोग हैं,
अनिद्रा का
हर वक्त चिल्लाता और,
हांफता रहता हैं
स्वप्न भुलैया में
स्कूटर पर भटकता
रहता हैं |
सुकून के वृक्ष काटकर
लगाये खंभे
अतृप्त इच्छाओं के,
पक्षी को भटकाता
रहता हैं,
सड़क पर
मृग-मरीचिका हैं ;
शहर भागता रहता हैं 

Tuesday, August 16, 2011

सर्वसक्तिमान का गीत

इतिहास के साक्षी
निर्जन स्थलों के
खंडहरों में
होता हैं निर्माण
 सर्वसक्तिमान के
अमर गीत का
नीरव और शून्य
होती हैं धुनें उसकी
निर्जीव प्राचीन
प्रस्तर सुनते हैं,
दर्शक बन

पवानागमन से होता हैं
शब्द  निर्माण
गायक स्वयं
सर्वसक्तिमान
सर्वत्र गुंजायमान
उस संगीत को सुनु में
मेरा आगमन  
लय  तोड़ता हैं

स्वप्न पंछी

उडान भरता स्वप्न पंछी
गिरता सा जाता हैं ,
निर्दिष्ट के धुंधलके में
डालियों सा कुछ दिखता,
नेह पाकर स्वप्न पंछी
राह उसकी ढूंढता,
उडान भरी वहां,पर यह क्या ?
रेखाओं को अद्रश्य पाता
हवा में घुटन सी आती
 स्वप्न पंछी
 गिरता सा जाता हैं |
 हर बार छला जाता हैं |
दिखती हैं फिर कोई डाल,
 सक्ती पाकर उड़ता जाता जाता हैं
 पर पहुच, फिर वहा 
 फिर छला जाता हैं |
 आसमान सिकुड़ा पाता हैं
  स्वप्न पंछी
  आखिर थकता जाता हैं |
जहाँ से चला था
अब वो भी नजर नही हैं
आखिर स्वप्न पंछी
तोड़कर सम्मोहन,
बीच चौराहे बैठ जाता हैं
और देख रहा हैं
पंख समेटे
दौड़ते सबको |

सूरज

सूरज की रौशनी का
रंग कैसा ?
समझ नही पाया
 हमेशा ही सूरज में
 रहस्य  पाया
कदाचित निगाहे
देख रही थी भेद
और वो दिखा रहा था
'एकता'
हमने सीखा विभाजन करना  
भेद-प्रभेद करना
 वो दिखा हैं समानता
निचोड़ हैं वो
हम बस समझ नही पाते

पत्ता

पेड़ का टुटा पत्ता हु में
   फिरता हु गली-गली
      कभी हवा मुझे ले जाती
   आसमान की सैर में
 बिन पंखो के हवा भरोसे
  गिर जाता हु ढ़ेर में |












नदी

जब नदी निकलती थी,
चट्टानों को नहलाकर
जगती को प्राणवान बनाने
किनारों से पुछंती थी,
बहुत दिनों का हाल
सबको अपनेपन का भाव दे
आगे बढती थी
सूर्य को अक्स बताने वाला
आईना बनती थी |
चांदनी रात में चाँद-तारो की
सहयोगिनी बनती थी |
पक्षियों का क्रीडा स्थल,
जलचरों की पृथ्वी ,
निर्मल भाव से
तन मन निर्मल करती थी
सुना था मैने,सुनो नालों
कोई नदी ऐसी बहती थी |

अस्तित्व

हवा के संग
मिट्टी के कण
अन्नत आकाश में
तलाशते शरण,
हवा का एक झोंका
जगह भुला देता
फिर भटकने को
मजबूर कर देता|
यों ठोकरे न खाता
ग़र समूह में होता |
थोड़ा ही सही
अपना एक
'अस्तित्व' होता |

दीप

जलने वाले दीप
तैयारी करना
बुझने की भी
चरमोत्कर्ष
प्राप्त करते-करते
अपने आस-पास
जला न लेना सब,
अन्यथा
जब तू बुझेगा
कौन जला आएगा,
 कौन? जलाएगा तुझको |

Friday, August 5, 2011

एक बूंद

 में एक बूंद हु
बारिश की |
पता नही हवाएं
कहा गिराएगी
मुझको ,
देकर कोई
समयानुकूल रूप
हो सकता हैं
संघर्ष के तपते
शिलाखंडो पर
छिन्न-भिन्न होना
नियति मेरी
या रेत के मोह भंवर में
फंसकर खुद को
मिट जाना हो
मगर में  मृत्यु वरण
यु नही चाहती |
अनेक बारिश की
बूंदों को संगिनी
बनकर श्रम पौधे
की जड़ो को सींचकर
प्रदत्त कर्त्तव्य पूर्ण करते
हो अंत मेरा
ताकि मेरे
कर्मफल उपभोगी
पहचान सके मेरे निशाँ |
में बारिश की बूंद हु