Monday, August 22, 2011

जेठ की दोपहरी

जेठ की दोपहरी में,
नंगे बदन
सूर्यातप को
झेल रहा |
बैठ दोपहरी की छाती पर,
चुने पत्थर से खेल रहा
गिरा हथोडा पत्थर पर
स्वेद बूंद टपक पड़ी
कोने में दुबकी छाया की
बरबस आँखे छलक पड़ी ;
साँझावार धुप  और लू का
उसने अंगोछे में समेट लिया 
उठा परत पत्थर की सर पर
दुपहरी के तन को भेद दिया ;
हो बेबस अब दोपहरी
चुपके से पीछे खिसक गयी |
वो बैठ छांव में सोच रहा
आज की रोटी तो मिल गयी |

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