Tuesday, August 16, 2011

स्वप्न पंछी

उडान भरता स्वप्न पंछी
गिरता सा जाता हैं ,
निर्दिष्ट के धुंधलके में
डालियों सा कुछ दिखता,
नेह पाकर स्वप्न पंछी
राह उसकी ढूंढता,
उडान भरी वहां,पर यह क्या ?
रेखाओं को अद्रश्य पाता
हवा में घुटन सी आती
 स्वप्न पंछी
 गिरता सा जाता हैं |
 हर बार छला जाता हैं |
दिखती हैं फिर कोई डाल,
 सक्ती पाकर उड़ता जाता जाता हैं
 पर पहुच, फिर वहा 
 फिर छला जाता हैं |
 आसमान सिकुड़ा पाता हैं
  स्वप्न पंछी
  आखिर थकता जाता हैं |
जहाँ से चला था
अब वो भी नजर नही हैं
आखिर स्वप्न पंछी
तोड़कर सम्मोहन,
बीच चौराहे बैठ जाता हैं
और देख रहा हैं
पंख समेटे
दौड़ते सबको |

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