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Thursday, December 8, 2011

ओछापन

 लोग कहते हैं मुझे
'संकीर्ण सोच वाला '
तथापि ,में पूछता नही हु |
की , यह जानने के लिए आपने
अपने आप को
कितना पैना किया हैं ,
में कहता भी नही हु ,
मेरा 'ओछापन'
दुनिया को बताने को
आपने स्वयं को कितना
'ओछा' किया हैं ,


Sunday, September 4, 2011

गाँव की शाम

सूर्यास्त के बाद
अँधेरे से पूर्व
आ गये नीड़ पर
अपनों के पास
संवाद दिन भर का
मोहक सुकूनभरी
चहचहाहट बन
गूंजने लगे पेड़ पर
बजने लगी घंटियाँ
ईश्वर के द्वार ,
आरती की दीपक लो
हाथो से चेहरे पर ,
फिर अंतर्मन में
कल की नई ताकत
समा गयी |
आकर ग्वाले
लेट गये चबूतरे पर
दिन भर की थकान से |
उनकी संपत्ति
अपने ठिकाने ,
जल्दबाजी में
चरे हुए,
जुगाली करती
फेन गिरते जमीन पर
सफ़ेद बादल से ,
ग्वालिन मुस्करा
ले बाल्टी चरणों में बैठ
दुहने लगी
'अमृत-धारा'
'धरतीपुत्र ' भी
आ गये देहरी पर
अंगोछे से पौछते पसीना
बच गया था शायद
दिन भर की कोशिश के बाद भी,
वसन से लक्षित
दिनभर की
माँ के साथ अठखेलियाँ |
वयस्कों की टोलियाँ
घूमने लगी गलियों में ,
निगाहे खिडकियों के पार
खोजती ,अपना
हमजोली |
'लाल' आँचल से निकल
चले मिटटी से खेलने
अपने बेनाम यारो के साथ
भेदभाव रहित |
पैरों में ड़ाल गीली मिटटी,
छोटे से हाथो से
बनाते अपना विशाल घर ,
पुचकारते हुए |
ढहने के बाद
अपने हाथो से
खुद फोड़ते,हसते
दुधमुहे दांतों से
कहते ......|
'हम खेले,हम बिगाड़े'
किसी का चुपके से
ढहा के ,भाग जाते ,
घर नंगे पैर ,
भूल जायेंगे कल क्या हुआ |
बुजर्गो के बड़ते
कदम चौपाल प़र
दुनियादारी की खबर 
की खबर मिलेगी उधर ,
फिर हुक्के के संग चलेगी
'ग्राम-विकास वार्ता ' 

Friday, August 5, 2011

एक बूंद

 में एक बूंद हु
बारिश की |
पता नही हवाएं
कहा गिराएगी
मुझको ,
देकर कोई
समयानुकूल रूप
हो सकता हैं
संघर्ष के तपते
शिलाखंडो पर
छिन्न-भिन्न होना
नियति मेरी
या रेत के मोह भंवर में
फंसकर खुद को
मिट जाना हो
मगर में  मृत्यु वरण
यु नही चाहती |
अनेक बारिश की
बूंदों को संगिनी
बनकर श्रम पौधे
की जड़ो को सींचकर
प्रदत्त कर्त्तव्य पूर्ण करते
हो अंत मेरा
ताकि मेरे
कर्मफल उपभोगी
पहचान सके मेरे निशाँ |
में बारिश की बूंद हु 

Saturday, March 5, 2011

रचना

पिरोंता हु मोती
चुन-चुनकर
धागा कमजोर
लगने लगता हैं !
कभी मोती
घिसा पिटा सा
छिला हुआ सा
लगता हैं !
सुई पिरो नही पाती
मोंतियो को
हथेली में चुभ
जाती हैं !
बिखर जाता हैं ,
सब कुछ
पन्ना फाड़ दिया जाता हैं !

Saturday, February 26, 2011

मैं बारिश की बूंद हु


में बारिश की बूंद हु ,
पता नही हवायें कहा ?
गिरायेगी मुझको
देकर कोई
समयानुकूल रूप
हो सकता हैं
हो सकता हैं !
अनेक बूंदों के साथ
दुनिया के समन्दर में
में भी खप जाऊ !
किसे याद रहेगा ?
मेरा स्वरुप,
"में बारिश की बूंद हु !"
संघर्ष के
तपते शिलाखंडो  पर
स्वं को '
समाप्त करलु !
और यह भी की '
रेत के बन्धनों में
बंधकर धीरे धीरे
एक दिन मिट जाऊ !
मगर में "
यह सब नही चाहती
में किसी कर्म पोधे
की जड़ो में
मरना चाहती हु !
ताकि पोधे को
देखकर
लोग कर सके,
पहचान मेरी
"मैं बारिश की बूंद हु "

Friday, February 25, 2011

नवयुग का निर्माण

नयें  युग के इस जीवन को,
जीवो के लिए हम दान  करें |
 इस जीर्ण जगत के पतझर में,
 नवयुग का निर्माण  करें |
 इन्द्रिय अश्वो का रथ मानव,
 छल बल से आगे बढ़ता हैं |
रह भले विस्तार लिए हो,
आड़े हो बाधक बनता हैं  |
बिठा सारथि समता का,
बंधुत्व ज्ञान प्रदान  करें |

इस जीर्ण जगत के.......

सड़ते गलते जीवन मे,
हाहाकार अँधेरा  छायाँ हैं |
निज  में लिपटा समाज हमारा,
भक्षक  बन भिक्षुक को खाया हैं |
स्वय के  बिखरे इन मोती में,
सामूहिकता का तार धरें |
इस जीर्ण जगत के.......

सड़क सिसकती बेबस को देख,
दुश्मन हैं कितने राहों में |
देख भूख को बस्ती रोती,
चलती ह राते आहो में |
कुछ दुःख बाटें कुछ सहयोग करे,
कुछ दे स्नेह  प्रेम हार गले |
इस जीर्ण जगत के.......

धरम बहुत हैं दुनिया  के,
लोगो को  बांटा  करते हैं |
एक अंश  के जीवन को,
दल धारा से  छाटा करते हैं |
अलग अलग इस टहनी को,
मानवता तने का बांध करे |
इस जीर्ण जगत के.......

तलवार धर सी बोली हैं,
रिश्तों को काटा करती हैं |
नयनो से बरसती हैं अग्नि,
अपनत्व जलाया करती हैं  |
दावानल के इस जंगल में,
प्रेम रूपी जलधार करे |
इस जीर्ण जगत के.......

विचारहीन निरउदेश्य सा,
निर्बल सा दिखता हैं जीवन |
पत्ते सारे बिखर गये,
ठूंठ सा दिखता हैं जीवन |
अस्तित्त्व को खोते इन पेड़ो में,
 नव पर्णों का संचार करें |
इस जीर्ण जगत के.......


नयें  युग के इस जीवन को,
जीवो के लिए हम दान  करें |
 इस जीर्ण जगत के पतझर में,
 नवयुग का निर्माण  करें |

Tuesday, February 22, 2011

हमने कब कहा ?

हमने कब कहा ?
की आप
 बुरें आदमी हो !
भला अपने आप से
 बातें करना भी 
कहना होता हैं क्या ?
आपने हमारी
 जुबान को
 कुछ बोलते हुएँ
सुना क्या ?
हमारी जुबान 
इतनी बेसमझ नही हैं 
की अपने 
 जीवन भर के साथी 
पेट को 
धोखा दे दे !
अजी ! और तो और 
हमारा पेट
 जुबान की
रोज क्लास लेता हैं !
हमारी जुबान पढ़ी लिखी हैं   !