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Saturday, February 26, 2011

मैं बारिश की बूंद हु


में बारिश की बूंद हु ,
पता नही हवायें कहा ?
गिरायेगी मुझको
देकर कोई
समयानुकूल रूप
हो सकता हैं
हो सकता हैं !
अनेक बूंदों के साथ
दुनिया के समन्दर में
में भी खप जाऊ !
किसे याद रहेगा ?
मेरा स्वरुप,
"में बारिश की बूंद हु !"
संघर्ष के
तपते शिलाखंडो  पर
स्वं को '
समाप्त करलु !
और यह भी की '
रेत के बन्धनों में
बंधकर धीरे धीरे
एक दिन मिट जाऊ !
मगर में "
यह सब नही चाहती
में किसी कर्म पोधे
की जड़ो में
मरना चाहती हु !
ताकि पोधे को
देखकर
लोग कर सके,
पहचान मेरी
"मैं बारिश की बूंद हु "

Friday, February 25, 2011

नवयुग का निर्माण

नयें  युग के इस जीवन को,
जीवो के लिए हम दान  करें |
 इस जीर्ण जगत के पतझर में,
 नवयुग का निर्माण  करें |
 इन्द्रिय अश्वो का रथ मानव,
 छल बल से आगे बढ़ता हैं |
रह भले विस्तार लिए हो,
आड़े हो बाधक बनता हैं  |
बिठा सारथि समता का,
बंधुत्व ज्ञान प्रदान  करें |

इस जीर्ण जगत के.......

सड़ते गलते जीवन मे,
हाहाकार अँधेरा  छायाँ हैं |
निज  में लिपटा समाज हमारा,
भक्षक  बन भिक्षुक को खाया हैं |
स्वय के  बिखरे इन मोती में,
सामूहिकता का तार धरें |
इस जीर्ण जगत के.......

सड़क सिसकती बेबस को देख,
दुश्मन हैं कितने राहों में |
देख भूख को बस्ती रोती,
चलती ह राते आहो में |
कुछ दुःख बाटें कुछ सहयोग करे,
कुछ दे स्नेह  प्रेम हार गले |
इस जीर्ण जगत के.......

धरम बहुत हैं दुनिया  के,
लोगो को  बांटा  करते हैं |
एक अंश  के जीवन को,
दल धारा से  छाटा करते हैं |
अलग अलग इस टहनी को,
मानवता तने का बांध करे |
इस जीर्ण जगत के.......

तलवार धर सी बोली हैं,
रिश्तों को काटा करती हैं |
नयनो से बरसती हैं अग्नि,
अपनत्व जलाया करती हैं  |
दावानल के इस जंगल में,
प्रेम रूपी जलधार करे |
इस जीर्ण जगत के.......

विचारहीन निरउदेश्य सा,
निर्बल सा दिखता हैं जीवन |
पत्ते सारे बिखर गये,
ठूंठ सा दिखता हैं जीवन |
अस्तित्त्व को खोते इन पेड़ो में,
 नव पर्णों का संचार करें |
इस जीर्ण जगत के.......


नयें  युग के इस जीवन को,
जीवो के लिए हम दान  करें |
 इस जीर्ण जगत के पतझर में,
 नवयुग का निर्माण  करें |

Tuesday, February 22, 2011

हमने कब कहा ?

हमने कब कहा ?
की आप
 बुरें आदमी हो !
भला अपने आप से
 बातें करना भी 
कहना होता हैं क्या ?
आपने हमारी
 जुबान को
 कुछ बोलते हुएँ
सुना क्या ?
हमारी जुबान 
इतनी बेसमझ नही हैं 
की अपने 
 जीवन भर के साथी 
पेट को 
धोखा दे दे !
अजी ! और तो और 
हमारा पेट
 जुबान की
रोज क्लास लेता हैं !
हमारी जुबान पढ़ी लिखी हैं   !

Wednesday, February 9, 2011

बसंत

तुम कब  आयें  बसंत ?
कब तुम ये, रंग  बिरंगे 
फूलों को ऑ मदमाता
मौसम लायें  बसंत ?
चुपके से
कब तुम बन गयें,
सर्दी और गर्मी का
मध्यस्थ बसंत ?
कागज के चिकने पन्नो में
देख देख के रोज तुझे !
हम भूल गयें तो क्या ?
नही भूलेंगे तुझे,
तेरे अपने साथी ऑ
हमजोली बसंत !
वो देख वहां ,
भूमिपुत्र की
कर्म भूमि में
सरसों खड़ी हैं,
तेरे स्वागत में
पीले फूलों थाल लियें !
साथ हैं तुझको अर्पण को,
पकी बालियाँ ऑ
भूमिपुत्र की मुस्कान बसंत !
यौवन छलकाती रमणियां
हिरणी की चंचलता सी
तिरछी चितवन से
तुझको आमन्त्रण
देती बसंत  !
यें पंछी पोधे पर्वत नदियाँ
तेरे आगमन से,
कितने खिले खिले
से लगते बसंत !
बस तुम आते रहना बसंत !
'हे' ऋतुराज बसंत !