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Monday, August 22, 2011

रेत के कण

रेत के कण,
भटकते इधर-उधर
पवन के संग
जा मिलते कभी,
दुसरे टीले में,
कर पहले को भंग
यायावरी सी प्रकृति ,
विश्वास रहित मित्रो से,
दिखाते अपना रंग
उष्ण में देखो,
उष्ण मिलेंगे
शीत में छुओ,
शीत मिलेंगे
अनुकूलन हैं,;
जीवन यापन ढंग
गिर जाते हैं
उड़ जाते हैं
कभी शांख-पात में,
फंस जाते हैं
बह जाते हैं कभी,
नीर प्रवाह के संग
चलती रहती हैं इनकी
पञ्च-भुत से
आँख-मिचोली संग ;
भटकते बेघर,;
रेत के कण | 

Tuesday, August 16, 2011

सूरज

सूरज की रौशनी का
रंग कैसा ?
समझ नही पाया
 हमेशा ही सूरज में
 रहस्य  पाया
कदाचित निगाहे
देख रही थी भेद
और वो दिखा रहा था
'एकता'
हमने सीखा विभाजन करना  
भेद-प्रभेद करना
 वो दिखा हैं समानता
निचोड़ हैं वो
हम बस समझ नही पाते

पत्ता

पेड़ का टुटा पत्ता हु में
   फिरता हु गली-गली
      कभी हवा मुझे ले जाती
   आसमान की सैर में
 बिन पंखो के हवा भरोसे
  गिर जाता हु ढ़ेर में |












दीप

जलने वाले दीप
तैयारी करना
बुझने की भी
चरमोत्कर्ष
प्राप्त करते-करते
अपने आस-पास
जला न लेना सब,
अन्यथा
जब तू बुझेगा
कौन जला आएगा,
 कौन? जलाएगा तुझको |

Saturday, March 5, 2011

रचना

पिरोंता हु मोती
चुन-चुनकर
धागा कमजोर
लगने लगता हैं !
कभी मोती
घिसा पिटा सा
छिला हुआ सा
लगता हैं !
सुई पिरो नही पाती
मोंतियो को
हथेली में चुभ
जाती हैं !
बिखर जाता हैं ,
सब कुछ
पन्ना फाड़ दिया जाता हैं !