Saturday, January 29, 2011

रेत के कण,
अनंत आकाश में
भटकते इधर उधर
पवन के संग !
जा मिलते कभी
दुसरे टीले में
कर पहले को भंग !
यायावरी सी पृकृति
विश्वासरहीत मित्रो से
दिखाते अपना रंग !
उष्ण में देखो,
उष्ण मिलेंगे !
शीत में छूओ,
शीत मिलेंगे !
अनुकूलन हैं,
जीवन यापन ढंग !
गिर जाते उड़ जाते हैं ,
कभी शाख पात में
फंस जाते हैं !
बह जाते हैं कभी,
नीर प्रवाह के संग !
चलती रहती हैं इनकी
पञ्च भुत से,
आँख मिचौली संग !
भटकते बेघर
रेत के कण
अनंत आकाश में
तलाशते शरण !
रेत के कण !!
by sagar jangid

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