Thursday, March 10, 2011

मन-मृग

मन-मृग जग जंगल में,
दौड़ रहा हैं प्रतिपल |
स्वं मैं हैं सुख-कस्तूरी,
खोज कहा रहा हैं स्थल |
प्रतिष्ठा के ताड़ के नीचे,
आभास मिला सुगंधी का |
पर क्षण मोह,छावं नही,
स्पर्श मिला यहाँ अग्नि का |
धन ले टीलों पर चढ़ गया,
लगा यही कही हैं,वो वस्तु |
फिर छल,तृषित चातक बना,
और मिला न कोई बंधु |
अब गया भोग-नदी किनारे,
सोचा यही हैं अंतिम लक्ष्य |
दिखी रिक्तता सर्वत्र यहा,
जीवन का व्यर्थ हुआ क्षय |
थका मन-मृग अब हांफ रहा,
कितना दूर हैं,वो स्थल |
मन-मृग जग जंगल मैं,
दौड़ रहा हैं प्रतिपल |

2 comments:

  1. भाई सागर जांगिड़ जी,
    जय राजस्थान-जय राजस्थानी !
    आपके ब्लोग पर आज भ्रमण किया !
    बहुत अच्छा लगा ! रचनाएं पढी़ !
    विचार और संवेदना की दृष्टि से बेहतर !
    आपको अभी शिल्प और भाषा के स्तर पर चिन्तन-मनन करना चाहिए ! आप भविष्य के अच्छे रचनाकार हैं १
    मेरी शुभकामनाएं ! जय हो !

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