निर्मल,अविरल,श्वेत तरंगो
को फिर से तुम अपनाओ माँ
नवीन प्रवाह,पुरातन रूप को
अब फिर से दोहराओ माँ ।
वही घाट हो ,वही किनारे
वही शुचिता के जयकारे हो ।
अंतर्मन भी निखर उठे
असंख्य शीश डुबारे हो ।
हर हर गंगे, हर हर माते
गुंजायमान तीर दिखलाओ माँ ।
चमक उठे ये पावन धरा
श्रंगार वही सजाओ माँ ।
जीवनदायनी, मोक्षदायनी
प्रेरणा,नवीन स्वरूपा हो तुम ।
माना कुछ तो भूल हुई हैं
पर फिर भी मातृरूपा हो तुम ।
पर्याय तुम्हारे हैं अनन्य
स्वच्छता का भी बन जाओ माँ ।
क्षमा मांगते कोटिशः शीश
पुनः वही बन जाओ माँ ।