Sunday, October 18, 2015

ख्वाहिश मेरी

तेरे आस पास ही 
हवाओं में घुलकर
तेरी मचलती लटों को
उड़ा जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तेरी नर्म हथेलियों में
मेहंदी बन कर रच जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तुम ही तो हो
उजाले की किरण
तुम ही हो दर्पण
मेरे मन का
तेरे कंगनों में
खनक जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तेरी पाजेब की
छन-छन
मेरा मुदित मन
तेरी कनखियों से कह जाना
मेरा रुक जाना
तेरे बालों में फूल सा महक जाना
हैं ख्वाहिश मेरी ।
तुम हो  बिम्ब
सपनो का
अपनों का
तुम में ही खो जाना
तुम ही हो जाना
हैं ख्वाहिश मेरी

Thursday, December 8, 2011

नववर्ष

 नववर्ष अभिनन्दन हो
जीवन खुशियों का संगम हो
बहता पवन निर्मल गति से
त्रस्त हृदयों को शांत करे
कठोर, कटु, भय की वाणी के
शब्दों को कोमलकान्त करे
सूखे, तपते जीवन धरा पर
हरियाली का  स्पंदन हो
जीवन ............
सूर्य किरण अंतर्मन के
तम का समूल नाश करे
अपरिचित मंजिल ना होगी
हृदयों में ये आभास भरे
सृष्टी पर पलती जगती में
सद्विचारों का हृदयंगम हो
जीवन ............
वृक्ष फले, फल फूल फले
यु जीवन गति करता जाये
सम विषम परिस्थितियों में
लेता जाएँ  देता जाएँ
वात्सल्य, प्रेम, दया नदियों में
त्रिवेणी सा संगम हो
जीवन ............
बजती रहे समता की धुन
क्षमता के मिलकर गीत लिखे
ममता व्यापकता ले इतनी
जीवन संगीत सा मधुर लगे
आशा हर्ष विनोद प्रसन्नता
से इश्वर का वंदन हो
जीवन ............

ओछापन

 लोग कहते हैं मुझे
'संकीर्ण सोच वाला '
तथापि ,में पूछता नही हु |
की , यह जानने के लिए आपने
अपने आप को
कितना पैना किया हैं ,
में कहता भी नही हु ,
मेरा 'ओछापन'
दुनिया को बताने को
आपने स्वयं को कितना
'ओछा' किया हैं ,


Sunday, September 4, 2011

गाँव की शाम

सूर्यास्त के बाद
अँधेरे से पूर्व
आ गये नीड़ पर
अपनों के पास
संवाद दिन भर का
मोहक सुकूनभरी
चहचहाहट बन
गूंजने लगे पेड़ पर
बजने लगी घंटियाँ
ईश्वर के द्वार ,
आरती की दीपक लो
हाथो से चेहरे पर ,
फिर अंतर्मन में
कल की नई ताकत
समा गयी |
आकर ग्वाले
लेट गये चबूतरे पर
दिन भर की थकान से |
उनकी संपत्ति
अपने ठिकाने ,
जल्दबाजी में
चरे हुए,
जुगाली करती
फेन गिरते जमीन पर
सफ़ेद बादल से ,
ग्वालिन मुस्करा
ले बाल्टी चरणों में बैठ
दुहने लगी
'अमृत-धारा'
'धरतीपुत्र ' भी
आ गये देहरी पर
अंगोछे से पौछते पसीना
बच गया था शायद
दिन भर की कोशिश के बाद भी,
वसन से लक्षित
दिनभर की
माँ के साथ अठखेलियाँ |
वयस्कों की टोलियाँ
घूमने लगी गलियों में ,
निगाहे खिडकियों के पार
खोजती ,अपना
हमजोली |
'लाल' आँचल से निकल
चले मिटटी से खेलने
अपने बेनाम यारो के साथ
भेदभाव रहित |
पैरों में ड़ाल गीली मिटटी,
छोटे से हाथो से
बनाते अपना विशाल घर ,
पुचकारते हुए |
ढहने के बाद
अपने हाथो से
खुद फोड़ते,हसते
दुधमुहे दांतों से
कहते ......|
'हम खेले,हम बिगाड़े'
किसी का चुपके से
ढहा के ,भाग जाते ,
घर नंगे पैर ,
भूल जायेंगे कल क्या हुआ |
बुजर्गो के बड़ते
कदम चौपाल प़र
दुनियादारी की खबर 
की खबर मिलेगी उधर ,
फिर हुक्के के संग चलेगी
'ग्राम-विकास वार्ता ' 

Monday, August 22, 2011

उद्धि

हृदय रूपी उद्धि
खो रहा है स्वरूप
इर्ष्या का सूर्य
सोंख रहा हैं
स्नेह-प्रेम के नीर को
हे बदलो
सूखने न दो 
दया की सीपियाँ
चुरा ले गये
दुर्भावना रूपी
मछुवारे के बच्चे |
पल रहे हैं घड़ियाल
दिखावे के
बाज नोंच रहे हैं
 मेरी निश्छलता को
हे ज्ञान की नदियों ::
रक्षा करो मेरी |

बदलो अपनी दृष्टी

बदलो अपनी दृष्टी
स्वय बदलकर देखो
आकर्षक मनोहर,
मुस्कान लकीरे नही
श्रम व वेदना की ,
झुरीयाँ देखो |
फुल और कली में क्या ?
पत्ते और टहनी में क्या ?
देखना है तो बीज का त्याग देखो
उद्धि की हिलोरे ,
पक्षी की किलोले,
नदियों के प्रपात,
चिड़ियाँ की चहके
वसंत ऋतु और
कोयल की कूके.
अब नही है युग यह वर्णन का .
मौका है जीवन दर्शन का.
अब झोपड़ पट्टी बस्तियां
होंगी तुम्हारी मस्तियाँ |
प्रकृति के दर्शन होंगे तुमको
भूखे पिचके पेटों में |
सूक्ष्म त्रुटी पे भरी यातना,
ढाबो पर सहते बच्चो में
भो न अब कल्पना धारा में
 वास्तविकता चट्टानें देखो ;
बदलो अपनी दृष्टी,
स्वय बदलकर  देखो |

सूरज के साथ

रात में तारे
आँखों में चुभते हैं
चांदनी में
एक जलन सी होती है
रोज थम जाता हु
सूरज के साथ
ख़ाली हाथ
जब घर की दीवारे
जैसे कैदी बनाती हैं
बाहर जाता हु
रेगिस्तान पाता हु
पिता की आँखे
देखता हु जब
पहाड़ सी आशाएं
लादे फिरता हु
शक्ति नही मिलती
ढ़ोने की  /.